

भारतीय जनता पार्टी मोगा में आंतरिक कलह: अनुशासन की दीवारों में दरारें
नया नेतृत्व और उभरी असहमति
लोक नायक संवाद नेटवर्क
मोगा -भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) एक ऐसी राष्ट्रीय पार्टी है जिसने देश के कोने-कोने में अपनी पकड़ मजबूत की है। परंतु जब पार्टी के भीतर ही कार्यकर्ताओं की अनदेखी, नेतृत्व चयन में पारदर्शिता की कमी और बाहर से लाए गए नेताओं को शीर्ष पदों पर बिठाने की घटनाएं होती हैं, तो न केवल कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटता है बल्कि संगठन के भविष्य पभीभी प्रश्नचिन्ह लग जाते हैं। मोगा ज़िला इसका ताज़ा उदाहरण है, जहाँ डॉ. हरजोत कमल को जिला अध्यक्ष नियुक्त किया गया, जबकि वर्षों से निष्ठा और सेवा दे रहे डॉ. सीमांत गर्ग जैसे कर्मठ कार्यकर्ताओं को नजरअंदाज कर दिया गया।

भाजपा में संगठनात्मक बदलाव होना कोई नई बात नहीं, लेकिन मोगा में जो हुआ, उसने पार्टी के पुराने सिपाहियों को सोचने पर मजबूर कर दिया है। डॉ. हरजोत कमल, जो पहले कांग्रेस में रहे और बाद में भाजपा में शामिल हुए, उन्हें जिला अध्यक्ष बना दिया गया। इस नियुक्ति पर सवाल उठने लगे हैं, क्योंकि यह कदम संगठन की आंतरिक लोकतांत्रिक प्रक्रिया को दरकिनार कर के उठाया गया प्रतीत होता है।

यह वह समय है जब भाजपा को मोगा जैसे ज़िलों में अपनी पकड़ और मज़बूत करने की ज़रूरत है, लेकिन नेतृत्व चयन में पारदर्शिता की कमी और बाहर से आए लोगों को प्राथमिकता देना पार्टी के मूल कार्यकर्ताओं में असंतोष पैदा कर रहा है।
डॉ. सीमांत गर्ग भाजपा के उन समर्पित कार्यकर्ताओं में से हैं जिन्होंने ज़मीनी स्तर पर पार्टी के लिए काम किया। चाहे चुनाव हो, संगठन निर्माण हो, या जनसंपर्क—हर स्तर पर उनकी भूमिका उल्लेखनीय रही है। उनकी ईमानदारी, कार्य के प्रति समर्पण और भाजपा विचारधारा के प्रति निष्ठा निर्विवाद रही है। फिर भी जब नेतृत्व चयन का समय आया, तो उन्हें नज़रअंदाज़ कर दिया गया।
यह केवल एक व्यक्ति की उपेक्षा नहीं है, बल्कि उस पूरी पीढ़ी की उपेक्षा है जिन्होंने भाजपा को मोगा जैसे क्षेत्रों में खड़ा किया। आज ऐसे कार्यकर्ता प्रश्न कर रहे हैं – “क्या पार्टी में मेहनत से ज़्यादा महत्त्व अब पैराशूट नेताओं को दिया जाएगा?”
कई कार्यकर्ताओं ने इस नियुक्ति के बाद खुद को किनारे कर लिया है। कुछ तो इस विषय में खुलकर बोले नहीं, परंतु उनका मौन उनकी पीड़ा की गवाही दे रहा है। स्थानीय नेताओं का कहना है कि कार्यकर्ता अब दुविधा में हैं – क्या वे उस पार्टी के लिए मेहनत करें जो उन्हें पहचान नहीं देती?
कुछ वरिष्ठ कार्यकर्ताओं ने निजी बातचीत में कहा है कि अगर ऐसी ही स्थिति रही तो 2027 के विधानसभा चुनावों में पार्टी को ज़मीन पर कार्यकर्ता नहीं मिलेंगे। जो लोग जमीनी लड़ाई लड़ते हैं, अगर वही हतोत्साहित हो जाएं तो संगठन सिर्फ नाम का रह जाता है।
भाजपा ने हमेशा खुद को ‘पार्टी विद डिफरेंस’ कहा है, लेकिन जब कांग्रेस छोड़कर आए नेता रातों-रात पद पाते हैं और जमीनी कार्यकर्ता खाली हाथ रह जाते हैं, तो पार्टी के चरित्र पर प्रश्न खड़े होना लाज़मी है।
यह ‘पैराशूट राजनीति’ भाजपा को भी उन्हीं खतरों की ओर धकेल रही है जो कभी कांग्रेस की पहचान बन चुके हैं – वंशवाद, चाटुकारिता और कार्यकर्ताओं की उपेक्षा। अगर समय रहते यह प्रवृत्ति नहीं रोकी गई, तो भाजपा को उस संगठनात्मक शक्ति का नुकसान झेलना पड़ेगा जिसने उसे आज इस मुकाम तक पहुंचाया।
यदि पार्टी के अंदर यह असंतोष जारी रहा और कार्यकर्ताओं का भरोसा कमजोर होता गया, तो इसका सीधा असर चुनावी परिणामों पर पड़ेगा। मोगा ज़िले की बात करें तो यहाँ भाजपा अभी भी चुनावी रूप से बहुत मज़बूत नहीं है। यहाँ पर कार्यकर्ताओं का सहयोग और जोश बहुत ज़रूरी है।
यदि पार्टी सिर्फ चेहरे के सहारे चुनाव लड़ने लगे और कार्यकर्ताओं को सिर्फ बैनर पोस्टर तक सीमित कर दे, तो वह दिन दूर नहीं जब भाजपा भी उन्हीं संकटों का सामना करेगी जिनसे आज विपक्षी दल जूझ रहे हैं।
भाजपा कार्यकर्ताओं को डॉ. हरजोत कमल की नीयत या कार्यशैली पर नहीं, बल्कि उनके चयन की प्रक्रिया पर आपत्ति है। वे पहले कांग्रेस के विधायक रहे, फिर भाजपा में शामिल हुए और अब ज़िला अध्यक्ष बना दिए गए। कार्यकर्ताओं को यह बात नागवार गुजर रही है कि एक ‘बाहरी’ व्यक्ति को शीर्ष पद पर बैठा दिया गया जबकि वर्षों से काम करने वाले स्थानीय नेता सिर्फ ‘हाथ जोड़ते’ रह गए।
यह नियुक्ति कार्यकर्ताओं के मन में सवाल पैदा करती है कि क्या भाजपा अब कांग्रेस की तर्ज पर ‘तुरंत नेता, तुरंत पद’ की नीति पर चल रही है?
पार्टी नेतृत्व को यह समझना होगा कि ज़िला इकाइयाँ पार्टी की रीढ़ होती हैं। इन इकाइयों को मजबूत रखने के लिए जरूरी है कि निचले स्तर पर काम कर रहे लोगों की भावनाओं को समझा जाए। यदि कार्यकर्ताओं को लगने लगा कि उनकी आवाज़ सुनी ही नहीं जाती, तो वे मौन हो जाते हैं — और मौन कार्यकर्ता कभी संगठन को आगे नहीं ले जाता।
नेतृत्व चयन में पारदर्शिता लाना आवश्यक है। यदि किसी की नियुक्ति होनी है, तो पहले संगठन के भीतर विचार-विमर्श और कार्यकर्ताओं की राय ज़रूरी हो।
पुराने और निष्ठावान कार्यकर्ताओं को सम्मान मिलना चाहिए। वे पार्टी की रीढ़ हैं, उन्हें उपेक्षित करना आत्मघाती सिद्ध होगा।
सार्वजनिक बैठकें होनी चाहिए, जहाँ कार्यकर्ता अपनी बात खुलकर रख सकें।
‘पैराशूट संस्कृति’ पर रोक लगाई जाए। पार्टी में आने के बाद नए नेताओं को कुछ समय काम करके दिखाना चाहिए, फिर उन्हें जिम्मेदारी दी जानी चाहिए।
वरिष्ठ नेताओं को ज़मीनी कार्यकर्ताओं से संवाद बढ़ाना चाहिए, ताकि कार्यकर्ताओं का भरोसा पार्टी में बना रहे।
भारतीय जनता पार्टी (भा.ज.पा.) को देशभर में एक सशक्त, अनुशासित और विचारधारा-प्रधान राजनीतिक दल के रूप में जाना जाता है। वर्षों से इसकी कार्यशैली में अनुशासन, वरिष्ठता का सम्मान और संगठनात्मक एकजुटता की मिसाल दी जाती रही है। यही वजह है कि पार्टी के अंदर होने वाले छोटे-बड़े निर्णय भी एक ठोस प्रक्रिया से गुजरते हैं, और यही विशेषताएं इसे अन्य दलों से अलग करती हैं। परंतु हाल ही में पंजाब के मोगा ज़िले में जो घटनाक्रम सामने आया है, वह न केवल पार्टी की छवि पर सवाल खड़े करता है, बल्कि इस बात की भी ओर संकेत करता है कि कहीं अनुशासन और वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के सम्मान की परंपरा दरक तो नहीं रही है?
मोगा ज़िला भाजपा इकाई में हाल ही में एक नया नेतृत्व नियुक्त किया गया, परंतु यह नियुक्ति कई वरिष्ठ कार्यकर्ताओं और मंडल अध्यक्षों को रास नहीं आई। पार्टी के तकरीबन मंडल अध्यक्षों द्वारा एक साथ सामूहिक इस्तीफा देना कोई सामान्य घटना नहीं मानी जा सकती। इन अध्यक्षों का आरोप है कि ज़िला अध्यक्ष की नियुक्ति में न तो ज़मीनी कार्यकर्ताओं की राय ली गई, न ही संगठन की पारदर्शी प्रक्रिया का पालन किया गया। यह निर्णय एकतरफा और तानाशाहीपूर्ण बताया गया।भाजपा मोगा ज़िले में जो हुआ, वह एक चेतावनी है। यदि पार्टी अपने मूल्यों को भूलती है और पुराने कार्यकर्ताओं को नज़रअंदाज़ कर ‘पैराशूट’ संस्कृति को बढ़ावा देती है, तो उसका नुकसान दूरगामी होगा।डॉ. सीमांत गर्ग जैसे कर्मठ कार्यकर्ताओं की उपेक्षा केवल एक व्यक्ति की उपेक्षा नहीं, बल्कि उस विचारधारा की उपेक्षा है जिस पर पार्टी टिकी हुई है।अब समय आ गया है कि पार्टी आत्ममंथन करे और ज़मीनी कार्यकर्ताओं को वह मान-सम्मान दे जिसकी वे हकदार हैं। क्योंकि अंततः चुनाव चेहरे नहीं, बल्कि कार्यकर्ताओं की मेहनत और जनसंपर्क से जीते जाते हैं।